यूँ न मिलने के सौ बहाने हैं
मिलने वाले कहाँ नहीं मिलते
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साक़िया तंज़ न कर चश्म-ए-करम रहने दे
हर्फ़ आने न दिया इश्क़ की ख़ुद्दारी पर
ग़म की तौहीन न कर ग़म की शिकायत कर के
क़दम उठे भी नहीं बज़्म-ए-नाज़ की जानिब
मंज़िलों के निशाँ नहीं मिलते
तुम उसी को वज्ह-ए-तरब कहो हम उसी को बाइ'स-ए-ग़म कहें
मोहब्बत का जहाँ है और मैं हूँ
मुद्दतों बाद जो इस राह से गुज़रा हूँ 'क़मर'
मेरी राहों में कई मरहले दुश्वार आए
जिस क़दर जज़्ब-ए-मोहब्बत का असर होता गया