दर्दमंदी
देखते देखते
च्यूंटियाँ कितनी रौंदी गईं
आख़िरी साँस तक
पलट कर झपटने की उम्मीद में
सर उठाती रहीं
देखते देखते
मेरे आसाब में
बिजलियाँ घुल गईं
रेंगती च्यूंटियाँ
जिल्द को चीर कर
ख़ून में मिल गईं
अब मैं कोई और हूँ
एक घायल दरिंदा कि जिस के लिए
ज़ख़्म ही ज़ख़्म हैं
(चाहे अपने हों या दूसरों के)
आख़िरी साँस तक
ज़ख़्म ही ज़ख़्म हैं
सारी बस्ती है सहमी हुई
लोग सब फ़लसफ़े
बाँध कर भाग उठे
मुझ पे अब कोई हँसता नहीं
मैं अकेला मगर
कल बड़ी देर तक ख़ुद पे हँसता रहा
आईने से ये कहता रहा
''या तो हर दर्द के कोई मअनी हैं
या फिर किसी दर्द के कोई मअनी नहीं''
(369) Peoples Rate This