आतिश-ए-इश्क़ से बचिए कि यहाँ हम ने भी
मोम की तरह से पत्थर को पिघलते देखा
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अब इस तरह भी रिवायत से इंहिराफ़ न कर
जाँ यूँ लिबास-ए-जिस्म को निकली उतार कर
क्या अहद-ए-नौ में अपनी पहचान देखता हूँ
तेरे बिन हयात की सोच भी गुनाह थी
अपनी यही पहचान, यही अपना पता है
दरिया-ए-मोहब्बत में मौजें हैं न धारा है
हम ज़मीं का आतिशीं उभार देखते रहे
उम्र भर खुल नहीं पाते हैं रुमूज़-ओ-असरार
जब अपने वा'दों से उन को मक्र ही जाना था
आइना हूँ कि मैं पत्थर हूँ ये कब पूछे है
हम नए हैं न है ये कहानी नई