अब इस तरह भी रिवायत से इंहिराफ़ न कर
बदल अगरचे तू अच्छा न दे, ख़राब तो दे
Faiz Ahmad Faiz
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Habib Jalib
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वो जो उम्र भर में कही गई सर-ए-शाम-ए-हिज्र लिखी गई
हर मौज-ए-हवादिस रखती है सीने में भँवर कुछ पिन्हाँ भी
लबों को खोल तो कैसा भी हो जवाब तो दे
तज़्किरे फ़हम ओ ख़िरद के तो यहाँ होते हैं
हो पाए किसी के हम भी कहाँ यूँ कोई हमारा भी न हुआ
जब अपने वा'दों से उन को मक्र ही जाना था
क्या अहद-ए-नौ में अपनी पहचान देखता हूँ
उम्र भर खुल नहीं पाते हैं रुमूज़-ओ-असरार
जाँ यूँ लिबास-ए-जिस्म को निकली उतार कर
हिज्र-ओ-विसाल के नए मंज़र भी आएँगे
गलियाँ हैं बहुत सी अभी दीवार के आगे
आइना हूँ कि मैं पत्थर हूँ ये कब पूछे है