हो पाए किसी के हम भी कहाँ यूँ कोई हमारा भी न हुआ
कब ठहरी किसी इक पर भी नज़र क्या चीज़ है शहर-ए-ख़ूबाँ भी
Wasi Shah
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Mohsin Naqvi
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क्या अहद-ए-नौ में अपनी पहचान देखता हूँ
जो परिंद ख़्वाहिशों के कभी हम शिकार करते
गलियाँ हैं बहुत सी अभी दीवार के आगे
जब अपने वा'दों से उन को मक्र ही जाना था
तेरे बिन हयात की सोच भी गुनाह थी
अब इस तरह भी रिवायत से इंहिराफ़ न कर
हिज्र-ओ-विसाल के नए मंज़र भी आएँगे
आतिश-ए-इश्क़ से बचिए कि यहाँ हम ने भी
बातों से फूल झड़ते थे लेकिन ख़बर न थी
मोहमल है न जानें तो, समझें तो वज़ाहत है
तज़्किरे फ़हम ओ ख़िरद के तो यहाँ होते हैं