कुछ तू ही बता आख़िर क्यूँ-कर तिरे बंदों पर
हर शब है नई आफ़त हर रोज़ मुसीबत है
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ये ज़मान-ओ-मकाँ का सितम भी नया
तेरे बिन हयात की सोच भी गुनाह थी
जाँ यूँ लिबास-ए-जिस्म को निकली उतार कर
हद्द-ए-फ़ासिल तो फ़क़त दर्द का सहरा निकली
वो जो उम्र भर में कही गई सर-ए-शाम-ए-हिज्र लिखी गई
कोहसार तो कहीं पे समुंदर भी आएँगे
डाल दी पैरों में उस शख़्स के ज़ंजीर यहाँ
हम नए हैं न है ये कहानी नई
तज़्किरे फ़हम ओ ख़िरद के तो यहाँ होते हैं
हर मौज-ए-हवादिस रखती है सीने में भँवर कुछ पिन्हाँ भी
आए थे क्यूँ सहरा में जुगनू बन कर