तेरे बिन हयात की सोच भी गुनाह थी
हम क़रीब-ए-जाँ तिरा हिसार देखते रहे
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दरिया-ए-मोहब्बत में मौजें हैं न धारा है
उम्र भर खुल नहीं पाते हैं रुमूज़-ओ-असरार
ये ज़मान-ओ-मकाँ का सितम भी नया
हद्द-ए-फ़ासिल तो फ़क़त दर्द का सहरा निकली
जो परिंद ख़्वाहिशों के कभी हम शिकार करते
हो पाए किसी के हम भी कहाँ यूँ कोई हमारा भी न हुआ
अब इस तरह भी रिवायत से इंहिराफ़ न कर
कुछ तू ही बता आख़िर क्यूँ-कर तिरे बंदों पर
हिज्र-ओ-विसाल के नए मंज़र भी आएँगे
हम ज़मीं का आतिशीं उभार देखते रहे
वो जो उम्र भर में कही गई सर-ए-शाम-ए-हिज्र लिखी गई