नियाज़-ए-इश्क़ है नाज़-ए-बुताँ है
नियाज़-ए-इश्क़ है नाज़-ए-बुताँ है
मोहब्बत काएनात-ए-दो-जहाँ है
हिजाबात-ए-तअय्युन उठ रहे हैं
निगाह-ए-शौक़ तेरा इम्तिहाँ है
मसर्रत भी बड़ी ने'मत है लेकिन
तिरे ग़म से मुझे फ़ुर्सत कहाँ है
न रहबर है न जादा है न मंज़िल
निगाहों में ग़ुबार-ए-कारवाँ है
तिरे नक़्श-ए-क़दम पर चल रहा हूँ
ख़ुदा जाने मिरी मंज़िल कहाँ है
मिरा ज़ौक़-ए-सियह-कारी न पूछो
तुम्हारे ही करम का इम्तिहाँ है
यही शायद है तकमील-ए-तसव्वुर
मुझे ख़ुद पर भी अब उन का गुमाँ है
तुम अपने ग़म की अज़्मत मुझ से पूछो
तुम्हारा ग़म हयात-ए-जाविदाँ है
ये दुनिया है 'रईस'-ए-सोख़्ता-जाँ
यहाँ हर गाम पर इक इम्तिहाँ है
(428) Peoples Rate This