हर एक शाख़ थी लर्ज़ां फ़ज़ा में चीख़-ओ-पुकार
हवा के हाथ में इक आब-दार ख़ंजर था
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हम न होते काख़-ए-मुश्त-ए-ख़ाक होता ग़ालिबन
हवस-गिरफ़्ता हवाओ निगाहें नीची रखो
मुतालेआ की हवस है किताब दे जाओ
शराफ़तों के रंग में शरारतें ख़लत-मलत
हादसों के ख़ौफ़ से एहसास की हद में न था
बराए-नाम ही सही ब-एहतियात कीजिए
हर इक फ़न में यक़ीनन ताक़ है वो
वक़्त के इंतिज़ार में वो है
ख़ुद को मुम्ताज़ बनाने की दिली-ख़्वाहिश में
सब्ज़ा-ज़ारों की शराफ़त से न खेलो क़तअन
कोई नश्शा न कोई ख़्वाब ख़रीद