हादसों के ख़ौफ़ से एहसास की हद में न था
वर्ना नफ़्स-ए-मुतमइन सफ़्फ़ाक होता ग़ालिबन
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मुतालेआ की हवस है किताब दे जाओ
किसी को साया किसी को गुल-ओ-समर देगा
बराए-नाम ही सही ब-एहतियात कीजिए
मता-ओ-माल-ए-हवस हुब्ब-ए-आल सामने है
कोई नश्शा न कोई ख़्वाब ख़रीद
हवस-गिरफ़्ता हवाओ निगाहें नीची रखो
लज़्ज़त का ज़हर वक़्त-ए-सहर छोड़ कर कोई
सब्ज़ा-ज़ारों की शराफ़त से न खेलो क़तअन
यास-ओ-हिरास-ओ-जौर-ओ-जफ़ा से अलग-थलग
ख़ुद को मुम्ताज़ बनाने की दिली-ख़्वाहिश में
ये कैसा गुल खिलाया है शजर ने
हम न होते काख़-ए-मुश्त-ए-ख़ाक होता ग़ालिबन