किसी को साया किसी को गुल-ओ-समर देगा
हरा-भरा है दरख़्त-ए-रिवाज रहने दो
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हम न होते काख़-ए-मुश्त-ए-ख़ाक होता ग़ालिबन
एहसास-ए-ज़िम्मेदारी बेदार हो रहा है
सुनो तो आरिज़ा-ए-इख़तिलाज रहने दो
हर इक फ़न में यक़ीनन ताक़ है वो
मुतालेआ की हवस है किताब दे जाओ
वक़्त के इंतिज़ार में वो है
शराफ़तों के रंग में शरारतें ख़लत-मलत
मता-ओ-माल-ए-हवस हुब्ब-ए-आल सामने है
हादसों के ख़ौफ़ से एहसास की हद में न था
यास-ओ-हिरास-ओ-जौर-ओ-जफ़ा से अलग-थलग
कोई नश्शा न कोई ख़्वाब ख़रीद