ये कैसा गुल खिलाया है शजर ने
समर बनने को ग़ुंचा मुंतज़िर है
Gulzar
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सब्ज़ा-ज़ारों की शराफ़त से न खेलो क़तअन
हर एक शाख़ थी लर्ज़ां फ़ज़ा में चीख़-ओ-पुकार
किसी को साया किसी को गुल-ओ-समर देगा
एहसास-ए-ज़िम्मेदारी बेदार हो रहा है
वक़्त के इंतिज़ार में वो है
हम न होते काख़-ए-मुश्त-ए-ख़ाक होता ग़ालिबन
मुतालेआ की हवस है किताब दे जाओ
शराफ़तों के रंग में शरारतें ख़लत-मलत
ख़ुद को मुम्ताज़ बनाने की दिली-ख़्वाहिश में
मता-ओ-माल-ए-हवस हुब्ब-ए-आल सामने है
लज़्ज़त का ज़हर वक़्त-ए-सहर छोड़ कर कोई