कट गई रात मगर
हिज्र के जागते पैराहन से
रात की मल्गजी अफ़्सुर्दा-महक आती है
हल्क़ा-ए-बाद-ए-सबा गर्दन में
वक़्त सड़कों पे खिंचा फिरता है
राह जाती ही नहीं कोई बयाबाँ की तरफ़
हाथ बढ़ते ही नहीं अपने गरेबाँ की तरफ़
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दर्द तन्हाई का
रंग हवा से छूट रहा है मौसम-ए-कैफ़-ओ-मस्ती है
जूही का पौदा
तल्ख़-ओ-तुर्श
इस सफ़र में नींद ऐसी खो गई
हम क्या जानें क़िस्सा क्या है हम ठहरे दीवाने लोग
चाँद की बुढिया
लोग यक-रंगी-ए-वहशत से भी उकताए हैं
एक मंज़र
दिल की खेती सूख रही है कैसी ये बरसात हुई
मैं इक फेरी वाला
ऐ आवारा यादो फिर ये फ़ुर्सत के लम्हात कहाँ