तिरे इंतिज़ार में इस तरह मिरा अहद-ए-शौक़ गुज़र गया
सर-ए-शाम जैसे बिसात-ए-दिल कोई ख़स्ता-हाल समेट ले
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मुझे कैफ़-ए-हिज्र अज़ीज़ है तू ज़र-ए-विसाल समेट ले
ज़िंदाँ में भी वही लब-ओ-रुख़्सार देखते
किसी ने दूर से देखा कोई क़रीब आया
लफ़्ज़ बे-जाँ हैं मिरे रूह-ए-मआनी मुझे दे
आँसू जो बहें सुर्ख़ तो हो जाती हैं आँखें
अब के इस तरह तिरे शहर में खोए जाएँ
गुज़िश्ता अहल-ए-सफ़र को जहाँ सुकून मिला
इस डर से इशारा न किया होंट न खोले
मुस्कुराती आँखों को दोस्तों की नम करना
रौशनी वाले तो दुनिया देखें
रूह में घोर अंधेरे को उतरने न दिया
ज़िंदगी तो सपना है कौन 'राम' अपना है