ज़िंदगी तो सपना है कौन 'राम' अपना है
क्या किसी को दुख देना क्या किसी का ग़म करना
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आँसू जो बहें सुर्ख़ तो हो जाती हैं आँखें
मैं अँधेरों का पुजारी हूँ मिरे पास न आ
तिरे इंतिज़ार में इस तरह मिरा अहद-ए-शौक़ गुज़र गया
हम ओस के क़तरे हैं कि बिखरे हुए मोती
मुस्कुराती आँखों को दोस्तों की नम करना
किसी मरक़द का ही ज़ेवर हो जाएँ
लफ़्ज़ बे-जाँ हैं मिरे रूह-ए-मआनी मुझे दे
ज़र्रा इंसान कभी दश्त-नगर लगता है
इस डर से इशारा न किया होंट न खोले
किसी ने दूर से देखा कोई क़रीब आया
अब के इस तरह तिरे शहर में खोए जाएँ
ज़िंदाँ में भी वही लब-ओ-रुख़्सार देखते