हुस्न-ए-बुताँ को देख के मैं दंग रह गया
हैरत का मेरी आँखों में इक रंग रह गया
जिस क़ाफ़िला के साथ था मुझ सा शिकस्ता-पा
पीछे वो क़ाफ़िला कई फ़रसंग रह गया
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उस की मर्ज़ी से अलग मज़हब-ओ-ईक़ाँ कब तक
हम कसरत-ए-अनवार से घबराए हुए हैं
सौ मुश्किलें थीं इश्क़ के आज़ार के लिए
ख़ानक़ाहों में किसी का बोल अब बाला नहीं