ख़ानक़ाहों में किसी का बोल अब बाला नहीं
सर तो सज्दे में है लेकिन नूर का हाला नहीं
क्यूँ हवा-ख़्वाहान-ए-दुनिया को डराता है बहुत
शैख़ ये ईमान है मकड़ी का कुछ जाला नहीं
Gulzar
Wasi Shah
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Faiz Ahmad Faiz
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हुस्न-ए-बुताँ को देख के मैं दंग रह गया
उस की मर्ज़ी से अलग मज़हब-ओ-ईक़ाँ कब तक
हम कसरत-ए-अनवार से घबराए हुए हैं
सौ मुश्किलें थीं इश्क़ के आज़ार के लिए