'ज़फ़र' वहाँ कि जहाँ हो कोई भी हद क़ाएम
फ़क़त बशर नहीं होता ख़ुदा भी होता है
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अपनी यकजाई में भी ख़ुद से जुदा रहता हूँ
यहाँ है धूप वहाँ साए हैं चले जाओ
पहले भी ख़ुदा को मानता था
ख़ुमार-ए-शब में जो इक दूसरे पे गिरते हैं
उस से बिछड़ के एक उसी का हाल नहीं मैं जान सका
तन्हाई तामीर करेगी घर से बेहतर इक ज़िंदान
'ज़फ़र' है बेहतरी इस में कि मैं ख़मोश रहूँ
कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
जिधर हो ज़िंदगी मुश्किल उधर नहीं आते
छाने होंगे सहरा जिस ने वो ही जान सका होगा
हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया