कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
कुछ मेरी वहशतों ने मुझे दर-ब-दर किया
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पड़ा न फ़र्क़ कोई पैरहन बदल के भी
मैं ने घाटे का भी इक सौदा किया
लहू में नाचती हमेश्गी उदास हो के रह गई
मैं एक हाथ तिरी मौत से मिला आया
वाक़िफ़ ख़ुद अपनी चश्म-ए-गुरेज़ाँ से कौन है
मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा
इलाज-ए-अहल-ए-सितम चाहिए अभी से 'ज़फ़र'
ये इब्तिदा थी कि मैं ने उसे पुकारा था
बेवफ़ा लोगों में रहना तिरी क़िस्मत ही सही
'ज़फ़र' वहाँ कि जहाँ हो कोई भी हद क़ाएम
सब सितम याद हैं सारी हमदर्दियाँ याद हैं
दूर तक एक ख़ला है सो ख़ला के अंदर