ये इब्तिदा थी कि मैं ने उसे पुकारा था
वो आ गया था 'ज़फ़र' उस ने इंतिहा की थी
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रात को ख़्वाब हो गई दिन को ख़याल हो गई
तुम्हें तो क़ब्र की मिट्टी भी अब पुकारती है
शायरी फूल खिलाने के सिवा कुछ भी नहीं है तो 'ज़फ़र'
कैसे करें बंदगी 'ज़फ़र' वाँ
वो एक बार भी मुझ से नज़र मिलाए अगर
महसूस लम्स जिस का सर-ए-रह-गुज़र किया
यहाँ जो पेड़ थे अपनी जड़ों को छोड़ चुके
सर-ए-शाम लुट चुका हूँ सर-ए-आम लुट चुका हूँ
काम इतनी ही फ़क़त राहगुज़र आएगी
शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा
नज़र से दूर हैं दिल से जुदा न हम हैं न तुम
वो नींद अधूरी थी क्या ख़्वाब-ए-ना-तमाम था क्या