ये ज़ख़्म-ए-इश्क़ है कोशिश करो हरा ही रहे
कसक तो जा न सकेगी अगर ये भर भी गया
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वो एक बार भी मुझ से नज़र मिलाए अगर
वो क्यूँ न रूठता मैं ने भी तो ख़ता की थी
शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा
'ज़फ़र' है बेहतरी इस में कि मैं ख़मोश रहूँ
कोई तो तर्क-ए-मरासिम पे वास्ता रह जाए
सब सितम याद हैं सारी हमदर्दियाँ याद हैं
मैं ने घाटे का भी इक सौदा किया
हर शख़्स बिछड़ चुका है मुझ से
मैं ऐसे जमघटे में खो गया हूँ
सुब्ह की सैर की करता हूँ तमन्ना शब भर
यहाँ जो पेड़ थे अपनी जड़ों को छोड़ चुके
मिसाल-ए-संग पड़ा कब तक इंतिज़ार करूँ