वो क्यूँ न रूठता मैं ने भी तो ख़ता की थी
बहुत ख़याल रखा था बहुत वफ़ा की थी
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मैं एक हाथ तिरी मौत से मिला आया
सुब्ह की सैर की करता हूँ तमन्ना शब भर
नए कपड़े बदल और बाल बना तिरे चाहने वाले और भी हैं
अजब इक बे-यक़ीनी की फ़ज़ा है
अपनी यकजाई में भी ख़ुद से जुदा रहता हूँ
पड़ा न फ़र्क़ कोई पैरहन बदल के भी
हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया
मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा
बदन ने छोड़ दिया रूह ने रिहा न किया
इलाज-ए-अहल-ए-सितम चाहिए अभी से 'ज़फ़र'
वो नींद अधूरी थी क्या ख़्वाब ना-तमाम था क्या
जिधर हो ज़िंदगी मुश्किल उधर नहीं आते