वो जाग रहा हो शायद अब तक
ये सोच के मैं भी जागता हूँ
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क़िस्मत में अगर जुदाइयाँ हैं
अपनी यकजाई में भी ख़ुद से जुदा रहता हूँ
मैं ने घाटे का भी इक सौदा किया
बेवफ़ा लोगों में रहना तिरी क़िस्मत ही सही
ख़िज़ाँ की रुत है जनम-दिन है और धुआँ और फूल
ये इब्तिदा थी कि मैं ने उसे पुकारा था
कोई तो तर्क-ए-मरासिम पे वास्ता रह जाए
वो नींद अधूरी थी क्या ख़्वाब-ए-ना-तमाम था क्या
बना हुआ है मिरा शहर क़त्ल-गाह कोई
मुड़ के जो आ नहीं पाया होगा उस कूचे में जा के 'ज़फ़र'
कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
महसूस लम्स जिस का सर-ए-रह-गुज़र किया