मुड़ के जो आ नहीं पाया होगा उस कूचे में जा के 'ज़फ़र'
हम जैसा बे-बस होगा हम जैसा तन्हा होगा
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किसी ख़याल की सरशारी में जारी-ओ-सारी यारी में
दरीचा बे-सदा कोई नहीं है
कैसे करें बंदगी 'ज़फ़र' वाँ
हम इतना चाहते थे एक दूसरे को 'ज़फ़र'
वो जाग रहा हो शायद अब तक
न इंतिज़ार करो इन का ऐ अज़ा-दारो
किसी तौर हो न पिन्हाँ तिरा रंग-ए-रू-सियाही
ऐ काश ख़ुद सुकूत भी मुझ से हो हम-कलाम
नए कपड़े बदल और बाल बना तिरे चाहने वाले और भी हैं
ये सोच के राख हो गया हूँ
क़िस्मत में अगर जुदाइयाँ हैं
कोई तो तर्क-ए-मरासिम पे वास्ता रह जाए