हम इतना चाहते थे एक दूसरे को 'ज़फ़र'
मैं उस की और वो मेरी मिसाल हो के रहा
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ख़ुमार-ए-शब में जो इक दूसरे पे गिरते हैं
निगाह करने में लगता है क्या ज़माना कोई
ऐ काश ख़ुद सुकूत भी मुझ से हो हम-कलाम
नामा-बर कोई नहीं है तो किसी लहर के हाथ
शिकायत उस से नहीं अपने-आप से है मुझे
अक्स पानी में अगर क़ैद किया जा सकता
सब सितम याद हैं सारी हमदर्दियाँ याद हैं
यहाँ है धूप वहाँ साए हैं चले जाओ
किसी तौर हो न पिन्हाँ तिरा रंग-ए-रू-सियाही
दूर तक एक ख़ला है सो ख़ला के अंदर
मिसाल-ए-संग पड़ा कब तक इंतिज़ार करूँ
बना हुआ है मिरा शहर क़त्ल-गाह कोई