बना हुआ है मिरा शहर क़त्ल-गाह कोई
पलट के माओं के लख़्त-ए-जिगर नहीं आते
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रात को ख़्वाब हो गई दिन को ख़याल हो गई
ऐ काश ख़ुद सुकूत भी मुझ से हो हम-कलाम
कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
मैं भी हूँ इक मकान की हद में
कितनी बे-सूद जुदाई है कि दुख भी न मिला
लहू में नाचती हमेश्गी उदास हो के रह गई
सर-ए-शाम लुट चुका हूँ सर-ए-आम लुट चुका हूँ
कहती है ये शाम की नर्म हवा फिर महकेगी इस घर की फ़ज़ा
इलाज-ए-अहल-ए-सितम चाहिए अभी से 'ज़फ़र'
ख़िज़ाँ की रुत है जनम-दिन है और धुआँ और फूल
दिन को मिस्मार हुए रात को तामीर हुए
वो लोग आज ख़ुद इक दास्ताँ का हिस्सा हैं