ऐ काश ख़ुद सुकूत भी मुझ से हो हम-कलाम
मैं ख़ामुशी-ज़दा हूँ सदा चाहिए मुझे
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तन्हाई तामीर करेगी घर से बेहतर इक ज़िंदान
दूर तक एक ख़ला है सो ख़ला के अंदर
उम्र भर लिखते रहे फिर भी वरक़ सादा रहा
'ज़फ़र' वहाँ कि जहाँ हो कोई भी हद क़ाएम
मिलूँ तो कैसे मिलूँ बे-तलब किसी से मैं
मैं भी हूँ इक मकान की हद में
नज़र से दूर हैं दिल से जुदा न हम हैं न तुम
शिकायत उस से नहीं अपने-आप से है मुझे
न इंतिज़ार करो इन का ऐ अज़ा-दारो
जिधर हो ज़िंदगी मुश्किल उधर नहीं आते
मैं ऐसे जमघटे में खो गया हूँ
गुज़ारता हूँ जो शब इश्क़-ए-बे-मआश के साथ