न इंतिज़ार करो इन का ऐ अज़ा-दारो
शहीद जाते हैं जन्नत को घर नहीं आते
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इलाज-ए-अहल-ए-सितम चाहिए अभी से 'ज़फ़र'
वो नींद अधूरी थी क्या ख़्वाब-ए-ना-तमाम था क्या
अब कहीं और कहाँ ख़ाक-बसर हों तिरे बंदे जा कर
उम्र भर लिखते रहे फिर भी वरक़ सादा रहा
दिन को मिस्मार हुए रात को तामीर हुए
हम इतना चाहते थे एक दूसरे को 'ज़फ़र'
मैं सोचता हूँ मुझे इंतिज़ार किस का है
सर-ए-शाम लुट चुका हूँ सर-ए-आम लुट चुका हूँ
मिलूँ तो कैसे मिलूँ बे-तलब किसी से मैं
शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा
हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया
ख़िज़ाँ की रुत है जनम-दिन है और धुआँ और फूल