ख़िज़ाँ की रुत है जनम-दिन है और धुआँ और फूल
हवा बिखेर गई मोम-बत्तियाँ और फूल
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मैं ने घाटे का भी इक सौदा किया
सुब्ह की सैर की करता हूँ तमन्ना शब भर
हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया
कैसे करें बंदगी 'ज़फ़र' वाँ
तुम्हें तो क़ब्र की मिट्टी भी अब पुकारती है
इलाज-ए-अहल-ए-सितम चाहिए अभी से 'ज़फ़र'
यहाँ जो पेड़ थे अपनी जड़ों को छोड़ चुके
वो लोग आज ख़ुद इक दास्ताँ का हिस्सा हैं
नए कपड़े बदल और बाल बना तिरे चाहने वाले और भी हैं
ख़ुमार-ए-शब में जो इक दूसरे पे गिरते हैं
किसी ज़िंदाँ में सोचना है अबस
शायरी फूल खिलाने के सिवा कुछ भी नहीं है तो 'ज़फ़र'