शायरी फूल खिलाने के सिवा कुछ भी नहीं है तो 'ज़फ़र'
बाग़ ही कोई लगाता कि जहाँ खेलते बच्चे जा कर
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उम्र भर लिखते रहे फिर भी वरक़ सादा रहा
पहले भी ख़ुदा को मानता था
मिलूँ तो कैसे मिलूँ बे-तलब किसी से मैं
ये सोच के राख हो गया हूँ
अब कहीं और कहाँ ख़ाक-बसर हों तिरे बंदे जा कर
किसी ख़याल की सरशारी में जारी-ओ-सारी यारी में
न इंतिज़ार करो इन का ऐ अज़ा-दारो
शिकायत उस से नहीं अपने-आप से है मुझे
वो लोग आज ख़ुद इक दास्ताँ का हिस्सा हैं
इक-आध बार तो जाँ वारनी ही पड़ती है
ऐ काश ख़ुद सुकूत भी मुझ से हो हम-कलाम
अपनी यकजाई में भी ख़ुद से जुदा रहता हूँ