पहले भी ख़ुदा को मानता था
और अब भी ख़ुदा को मानता हूँ
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नए कपड़े बदल और बाल बना तिरे चाहने वाले और भी हैं
डूबता हूँ जो हटाता हूँ नज़र पानी से
छाने होंगे सहरा जिस ने वो ही जान सका होगा
ये सोच के राख हो गया हूँ
महसूस लम्स जिस का सर-ए-रह-गुज़र किया
मैं एक हाथ तिरी मौत से मिला आया
कोई तो तर्क-ए-मरासिम पे वास्ता रह जाए
सर-ए-शाम लुट चुका हूँ सर-ए-आम लुट चुका हूँ
'ज़फ़र' है बेहतरी इस में कि मैं ख़मोश रहूँ
ख़ुमार-ए-शब में जो इक दूसरे पे गिरते हैं
ऐ काश ख़ुद सुकूत भी मुझ से हो हम-कलाम
वो नींद अधूरी थी क्या ख़्वाब ना-तमाम था क्या