शिकायत उस से नहीं अपने-आप से है मुझे
वो बेवफ़ा था तो मैं आस क्यूँ लगा बैठा
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'ज़फ़र' वहाँ कि जहाँ हो कोई भी हद क़ाएम
नज़र से दूर हैं दिल से जुदा न हम हैं न तुम
बदन ने छोड़ दिया रूह ने रिहा न किया
मोहब्बतें थीं कुछ ऐसी विसाल हो के रहा
शायरी फूल खिलाने के सिवा कुछ भी नहीं है तो 'ज़फ़र'
क़िस्मत में अगर जुदाइयाँ हैं
वो नींद अधूरी थी क्या ख़्वाब ना-तमाम था क्या
कितनी बे-सूद जुदाई है कि दुख भी न मिला
छाने होंगे सहरा जिस ने वो ही जान सका होगा
लहू में नाचती हमेश्गी उदास हो के रह गई
बना हुआ है मिरा शहर क़त्ल-गाह कोई
अब कहीं और कहाँ ख़ाक-बसर हों तिरे बंदे जा कर