बदन ने छोड़ दिया रूह ने रिहा न किया
मैं क़ैद ही में रहा क़ैद से निकल के भी
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दरीचा बे-सदा कोई नहीं है
ख़िज़ाँ की रुत है जनम-दिन है और धुआँ और फूल
मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा
बना हुआ है मिरा शहर क़त्ल-गाह कोई
पड़ा न फ़र्क़ कोई पैरहन बदल के भी
कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
कितनी बे-सूद जुदाई है कि दुख भी न मिला
अपनी यकजाई में भी ख़ुद से जुदा रहता हूँ
मैं सोचता हूँ मुझे इंतिज़ार किस का है
नए कपड़े बदल और बाल बना तिरे चाहने वाले और भी हैं
पहले भी ख़ुदा को मानता था