अपनी यादें उस से वापस माँग कर
मैं ने अपने-आप को यकजा किया
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अब कहीं और कहाँ ख़ाक-बसर हों तिरे बंदे जा कर
जीने का दरस सब से जुदा चाहिए मुझे
उम्र भर लिखते रहे फिर भी वरक़ सादा रहा
मैं भी हूँ इक मकान की हद में
यहाँ है धूप वहाँ साए हैं चले जाओ
काम इतनी ही फ़क़त राहगुज़र आएगी
वो एक बार भी मुझ से नज़र मिलाए अगर
मैं ने घाटे का भी इक सौदा किया
कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
जिधर हो ज़िंदगी मुश्किल उधर नहीं आते
किसी ज़िंदाँ में सोचना है अबस
उस से बिछड़ के एक उसी का हाल नहीं मैं जान सका