अजब इक बे-यक़ीनी की फ़ज़ा है
यहाँ होना न होना एक सा है
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अक्स पानी में अगर क़ैद किया जा सकता
जिधर हो ज़िंदगी मुश्किल उधर नहीं आते
मैं सोचता हूँ मुझे इंतिज़ार किस का है
मुड़ के जो आ नहीं पाया होगा उस कूचे में जा के 'ज़फ़र'
वो जाग रहा हो शायद अब तक
किसी तौर हो न पिन्हाँ तिरा रंग-ए-रू-सियाही
मिलूँ तो कैसे मिलूँ बे-तलब किसी से मैं
दिन को मिस्मार हुए रात को तामीर हुए
'ज़फ़र' है बेहतरी इस में कि मैं ख़मोश रहूँ
उस से बिछड़ के एक उसी का हाल नहीं मैं जान सका
अब कहीं और कहाँ ख़ाक-बसर हों तिरे बंदे जा कर
छाने होंगे सहरा जिस ने वो ही जान सका होगा