सुब्ह की सैर की करता हूँ तमन्ना शब भर
दिन निकलता है तो बिस्तर में पड़ा रहता हूँ
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हर दर्जे पे इश्क़ कर के देखा
अपनी यकजाई में भी ख़ुद से जुदा रहता हूँ
ख़िज़ाँ की रुत है जनम-दिन है और धुआँ और फूल
मैं सोचता हूँ मुझे इंतिज़ार किस का है
वो क्यूँ न रूठता मैं ने भी तो ख़ता की थी
पड़ा न फ़र्क़ कोई पैरहन बदल के भी
मैं ने घाटे का भी इक सौदा किया
जीने का दरस सब से जुदा चाहिए मुझे
यहाँ है धूप वहाँ साए हैं चले जाओ
नज़र से दूर हैं दिल से जुदा न हम हैं न तुम
ये ज़ख़्म-ए-इश्क़ है कोशिश करो हरा ही रहे
अक्स पानी में अगर क़ैद किया जा सकता