हर दर्जे पे इश्क़ कर के देखा
हर दर्जे में बेवफ़ाइयाँ हैं
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शिकायत उस से नहीं अपने-आप से है मुझे
बदन ने छोड़ दिया रूह ने रिहा न किया
कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
मैं सोचता हूँ मुझे इंतिज़ार किस का है
मैं ने घाटे का भी इक सौदा किया
बेवफ़ा लोगों में रहना तिरी क़िस्मत ही सही
सुब्ह की सैर की करता हूँ तमन्ना शब भर
अजब इक बे-यक़ीनी की फ़ज़ा है
दिन को मिस्मार हुए रात को तामीर हुए
यहाँ है धूप वहाँ साए हैं चले जाओ
वाक़िफ़ ख़ुद अपनी चश्म-ए-गुरेज़ाँ से कौन है