गुज़ारता हूँ जो शब इश्क़-ए-बे-मआश के साथ
तो सुब्ह अश्क मिरे नाश्ते पे गिरते हैं
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दिन को मिस्मार हुए रात को तामीर हुए
वो क्यूँ न रूठता मैं ने भी तो ख़ता की थी
मैं सोचता हूँ मुझे इंतिज़ार किस का है
सब सितम याद हैं सारी हमदर्दियाँ याद हैं
दरीचा बे-सदा कोई नहीं है
ख़ुमार-ए-शब में जो इक दूसरे पे गिरते हैं
मैं ऐसे जमघटे में खो गया हूँ
ये इब्तिदा थी कि मैं ने उसे पुकारा था
वो एक बार भी मुझ से नज़र मिलाए अगर
सुब्ह की सैर की करता हूँ तमन्ना शब भर
जीने का दरस सब से जुदा चाहिए मुझे
शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा