तुम्हें तो क़ब्र की मिट्टी भी अब पुकारती है
यहाँ के लोग भी उकताए हैं चले जाओ
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कितनी बे-सूद जुदाई है कि दुख भी न मिला
में सोचता हूँ जिसे आश्ना भी होता है
हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया
नज़र से दूर हैं दिल से जुदा न हम हैं न तुम
छाने होंगे सहरा जिस ने वो ही जान सका होगा
दिन को मिस्मार हुए रात को तामीर हुए
शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा
सब सितम याद हैं सारी हमदर्दियाँ याद हैं
डूबता हूँ जो हटाता हूँ नज़र पानी से
हम इतना चाहते थे एक दूसरे को 'ज़फ़र'
बेवफ़ा लोगों में रहना तिरी क़िस्मत ही सही
सितारे सो गए तो आसमाँ कैसा लगेगा