कहती है ये शाम की नर्म हवा फिर महकेगी इस घर की फ़ज़ा
नया कमरा सजा नई शम्अ जला तिरे चाहने वाले और भी हैं
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काम इतनी ही फ़क़त राहगुज़र आएगी
मिलूँ तो कैसे मिलूँ बे-तलब किसी से मैं
वो एक बार भी मुझ से नज़र मिलाए अगर
महसूस लम्स जिस का सर-ए-रह-गुज़र किया
जीने का दरस सब से जुदा चाहिए मुझे
मैं ने घाटे का भी इक सौदा किया
उम्र भर लिखते रहे फिर भी वरक़ सादा रहा
नज़र आते नहीं हैं बहर में हम
उस से बिछड़ के एक उसी का हाल नहीं मैं जान सका
ये इब्तिदा थी कि मैं ने उसे पुकारा था
कैसे करें बंदगी 'ज़फ़र' वाँ
सब सितम याद हैं सारी हमदर्दियाँ याद हैं