इब्तिदा मुझ में इंतिहा मुझ में
इक मुकम्मल है वाक़िआ मुझ में
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वरक़ वरक़ से नया इक जवाब माँगूँ मैं
दोहरी शहरियत
रस्ते लपेट कर सभी मंज़िल पे लाए हैं
किया है ख़ुद ही गिराँ ज़ीस्त का सफ़र मैं ने
मैं दूर दूर से ख़ुद को उठा के लाता रहा
मैं अपने सारे सवालों के जानता हूँ जवाब
मैं दोस्त से न किसी दुश्मनी से डरता हूँ
पहले तो जस्ता जस्ता भूल गया
अपनी तलाश में निकले
साअत-ए-हिज्र जब सताती है
घुटन