मैं आदमी हूँ कोई फ़रिश्ता नहीं हुज़ूर
मैं आज अपनी ज़ात से घबरा के पी गया
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एक वा'दा है किसी का जो वफ़ा होता नहीं
फिर उमड आए हैं यादों के सुहाने बादल
दुख-भरी दास्तान माज़ी की
मैं तल्ख़ी-ए-हयात से घबरा के पी गया
साक़िया एक जाम पीने से
जाने वाले हमारी महफ़िल से
ज़ुल्फ़-ए-बरहम की जब से शनासा हुई
रंग उड़ने लगा है फूलों का
भूली हुई सदा हूँ मुझे याद कीजिए
ये जो दीवाने से दो चार नज़र आते हैं
वक़्त के रंगीं गुल-दस्ते को याद आएगा ठंडा हाथ
हर शय है पुर-मलाल बड़ी तेज़ धूप है