साक़िया एक जाम पीने से
जन्नतें लड़खड़ा के मिलती हैं
लाला-ओ-गुल कलाम करते हैं
रहमतें मुस्कुरा के मिलती हैं
Jaun Eliya
Gulzar
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इस दर्जा इश्क़ मौजिब-ए-रुस्वाई बन गया
ज़िंदगी और शराब की लज़्ज़त
भूली हुई सदा हूँ मुझे याद कीजिए
ऐ अदम के मुसाफ़िरो होशियार
ला इक ख़ुम-ए-शराब कि मौसम ख़राब है
ज़ुल्फ़-ए-बरहम की जब से शनासा हुई
ख़ाक उड़ती है तेरी गलियों में
राहज़न आदमी रहनुमा आदमी
बरगश्ता-ए-यज़्दान से कुछ भूल हुई है
महफ़िलें लुट गईं जज़्बात ने दम तोड़ दिया
जिस अहद में लुट जाए फ़क़ीरों की कमाई
जज़्बा-ए-सोज़-ए-तलब को बे-कराँ करते चलो