ख़ाक उड़ती है तेरी गलियों में
ज़िंदगी का वक़ार देखा है
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अब अपनी हक़ीक़त भी 'साग़र' बे-रब्त कहानी लगती है
दुनिया-ए-हादसात है इक दर्दनाक गीत
ज़ुल्फ़-ए-बरहम की जब से शनासा हुई
बे-क़रारी में भी अक्सर दर्द-मंदान-ए-जुनूँ
चश्म को ए'तिबार की ज़हमत
वो बुलाएँ तो क्या तमाशा हो
कल जिन्हें छू नहीं सकती थी फ़रिश्तों की नज़र
एक वा'दा है किसी का जो वफ़ा होता नहीं
आज फिर बुझ गए जल जल के उमीदों के चराग़
वक़्त की उम्र क्या बड़ी होगी
हम फ़क़ीरों की सूरतों पे न जा
मौत कहते हैं जिस को ऐ 'साग़र'