मौत कहते हैं जिस को ऐ 'साग़र'
ज़िंदगी की कोई कड़ी होगी
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चाँदनी को रसूल कहता हूँ
आहन की सुर्ख़ ताल पे हम रक़्स कर गए
मुस्कुराओ बहार के दिन हैं
जिन से ज़िंदा हो यक़ीन ओ आगही की आबरू
आज फिर बुझ गए जल जल के उमीदों के चराग़
हर माह लुट रही है ग़रीबों की आबरू
रंग उड़ने लगा है फूलों का
बात फूलों की सुना करते थे
आह! तेरे बग़ैर ये महताब
जिस दौर में लुट जाए ग़रीबों कमाई
ऐ दिल-ए-बे-क़रार चुप हो जा
है एहतिसाब-ए-वक़्त की लटकी हुई सलीब