जिस दौर में लुट जाए ग़रीबों कमाई
उस दौर के सुल्तान से कुछ भूल हुई है
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जाम टकराओ! वक़्त नाज़ुक है
मैं ने लौह-ओ-क़लम की दुनिया को
फिर उमड आए हैं यादों के सुहाने बादल
जिन से ज़िंदा हो यक़ीन ओ आगही की आबरू
अब कहाँ ऐसी तबीअत वाले
आहन की सुर्ख़ ताल पे हम रक़्स कर गए
तारों से मेरा जाम भरो मैं नशे में हूँ
जिन से अफ़्साना-ए-हस्ती में तसलसुल था कभी
मता-ए-कौसर-ओ-ज़मज़म के पैमाने तिरी आँखें
ऐ अदम के मुसाफ़िरो होशियार
चराग़-ए-तूर जलाओ बड़ा अंधेरा है
तुम गए रौनक़-ए-बहार गई