ऐ दिल-ए-बे-क़रार चुप हो जा
जा चुकी है बहार चुप हो जा
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जिस दौर में लुट जाए ग़रीबों कमाई
छलके हुए थे जाम परेशाँ थी ज़ुल्फ़-ए-यार
तक़दीर के चेहरे की शिकन देख रहा हूँ
हर मरहला-ए-शौक़ से लहरा के गुज़र जा
रंग उड़ने लगा है फूलों का
अब कहाँ ऐसी तबीअत वाले
अब अपनी हक़ीक़त भी 'साग़र' बे-रब्त कहानी लगती है
दुख-भरी दास्तान माज़ी की
एक शबनम के क़तरे की तक़दीर को
ज़िंदगी जब्र-ए-मुसलसल की तरह काटी है
रूदाद-ए-मोहब्बत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए
आह! तेरे बग़ैर ये महताब