अब अपनी हक़ीक़त भी 'साग़र' बे-रब्त कहानी लगती है
दुनिया की हक़ीक़त क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए
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तारों से मेरा जाम भरो मैं नशे में हूँ
अब कहाँ ऐसी तबीअत वाले
वक़्त की उम्र क्या बड़ी होगी
चाक-ए-दामन को जो देखा तो मिला ईद का चाँद
ये जो दीवाने से दो चार नज़र आते हैं
जब जाम दिया था साक़ी ने जब दौर चला था महफ़िल में
साक़ी की इक निगाह के अफ़्साने बन गए
महफ़िलें लुट गईं जज़्बात ने दम तोड़ दिया
नग़्मों की इब्तिदा थी कभी मेरे नाम से
मौत कहते हैं जिस को ऐ 'साग़र'
मैं ने लौह-ओ-क़लम की दुनिया को
बात फूलों की सुना करते थे