आओ इक सज्दा करें आलम-ए-मदहोशी में
लोग कहते हैं कि 'साग़र' को ख़ुदा याद नहीं
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आज फिर बुझ गए जल जल के उमीदों के चराग़
वहशत-ए-दिल ने काँच के टुकड़े
अब न आएँगे रूठने वाले
मौत कहते हैं जिस को ऐ 'साग़र'
झिलमिलाते हुए अश्कों की लड़ी टूट गई
चराग़-ए-तूर जलाओ बड़ा अँधेरा है
जिन से अफ़्साना-ए-हस्ती में तसलसुल था कभी
जाम टकराओ! वक़्त नाज़ुक है
जब जाम दिया था साक़ी ने जब दौर चला था महफ़िल में
जाने वाले हमारी महफ़िल से
भूली हुई सदा हूँ मुझे याद कीजिए
जज़्बा-ए-सोज़-ए-तलब को बे-कराँ करते चलो