एक शबनम के क़तरे की तक़दीर को
आज़माती रही रात भर चाँदनी
सुब्ह देखा शगूफ़े थे टूटे हुए
गुल खिलाती रही रात भर चाँदनी
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ज़ुल्फ़-ए-बरहम की जब से शनासा हुई
वहशत-ए-दिल ने काँच के टुकड़े
आहन की सुर्ख़ ताल पे हम रक़्स कर गए
जिन से अफ़्साना-ए-हस्ती में तसलसुल था कभी
जाम टकराओ! वक़्त नाज़ुक है
मुस्कुराओ बहार के दिन हैं
हर शय है पुर-मलाल बड़ी तेज़ धूप है
हर माह लुट रही है ग़रीबों की आबरू
एक वा'दा है किसी का जो वफ़ा होता नहीं
हूरों की तलब और मय ओ साग़र से है नफ़रत
काँटे तो ख़ैर काँटे हैं इस का गिला ही क्या
कल जिन्हें छू नहीं सकती थी फ़रिश्तों की नज़र